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Saturday, July 30, 2011

कितना विदग्ध करता है,

जग से हारना।
स्वयं कि चिन्ता मेँ,
स्वयं का दाह।
निरुत्तर मन और भीँचती मुठ्ठीयां।
स्वपनिल अस्थियोँ की उडती राख।
गले-सडे विश्वास की विदारक सडांध।
निरुत्तर मृत्यु परायण मृत प्राय जीवन।
न जाने कैसे जी जाते हैँ लोग.........।
जो नित जलाते है, कई चितायेँ।
वृद्द और रुढ विश्वासो की।
प्रोढ प्रतिज्ञाऔँ,
सुकुमार समर्पण,
और नवजात स्वपनोँ की॥
दिलीप वशिष्ठ॥

Saturday, May 14, 2011

"संभव नही"

निरपेक्ष जीवन
संभव नही।
ओर
न...ही संभव है;
एहसानो की यातनाएं सहना।
जी जाते हैँ;
वो लोग,
जो बजते हैँ
ढोलक की तरह,
इधर से भी
उधर से भी।
मगर यह सब संभव नही मेरे लिए।