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Saturday, July 30, 2011

कितना विदग्ध करता है,

जग से हारना।
स्वयं कि चिन्ता मेँ,
स्वयं का दाह।
निरुत्तर मन और भीँचती मुठ्ठीयां।
स्वपनिल अस्थियोँ की उडती राख।
गले-सडे विश्वास की विदारक सडांध।
निरुत्तर मृत्यु परायण मृत प्राय जीवन।
न जाने कैसे जी जाते हैँ लोग.........।
जो नित जलाते है, कई चितायेँ।
वृद्द और रुढ विश्वासो की।
प्रोढ प्रतिज्ञाऔँ,
सुकुमार समर्पण,
और नवजात स्वपनोँ की॥
दिलीप वशिष्ठ॥